Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएंःअवगंठुन 2



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उसी दिन रात को भवानीचरण ने विशेष रेशमी साड़ी लेकर महामाया को दी, और बोले- इसे पहन आओ।
महामाया उसे पहन आई। उसके बाद बोले- अब, मेरे साथ चलो। आज तक भवानीचरण की आज्ञा तो दूर रही, संकेत तक का भी किसी ने उल्लंघन नहीं किया था? महामाया ने भी नहीं।
उसी रात्रि को दोनों सरिता के तट पर श्मशान भूमि की ओर चल दिये। श्मशान भूमि अधिक दूर नहीं थी। वहां गंगा यात्री के घर में एक बूढ़ा ब्राह्मण अंतिम घड़ियां गिन रहा था। उसकी खटिया के पास दोनों पहुंचकर खड़े हो गये। घर के एक कोने में पुरोहित ब्राह्मण भी मौजूद था। भवानीचरण ने उससे संकेत में कुछ कहा। वह शीघ्र ही शुभानुष्ठान की तैयारियां करके पास आ खड़ा हुआ। महामाया समझ गई कि इस मृत्यु को आलिंगन करने वाले इन्सान के साथ उसका विवाह होगा। उसने रत्ती भर भी विरोध नहीं किया। समीप में ही जलती हुई दो चिताओं के प्रकाश में उस अंधेरे से घर में मृत्यु की यंत्रणा की आर्त्त-ध्वनि के साथ अस्पष्ट मन्त्रोच्चारण मिलाकर महामाया का पाणिग्रहण संस्कार करा दिया गया।
जिस दिन विवाह हुआ उसके दूसरे दिन ही महामाया विधवा हो गई। इस दुर्घटना से महामाया को तिल मात्र भी शोक न हुआ और राजीव भी अचानक महामाया के विवाह की सूचना पाकर जैसा दुखी हुआ था, वैधव्य की सूचना से वैसा न हुआ, बल्कि उसे कुछ खुशी हो गई।
पहले उसने सोचा कि साहब को सूचित कर दे और उसकी सहायता से इस अमानुषिक अत्याचार पर किसी प्रकार प्रतिबन्ध लगा दिया जाये? तभी विचार आया कि साहब तो सोनपुर जा चुका है। राजीव को भी वह साथ ले जाना चाहता था, पर वह एक मास का अवकाश लेकर यहीं रह गया है।
महामाया ने उसे वचन दिया है- तुम मेरी राह देखना। उसकी वह किसी प्रकार भी उपेक्षा नहीं कर सकता? इतने में बड़े जोर की आंधी के साथ मूसलाधर वर्षा होने लगी। आंधी क्या थी, भयंकर तूफान था, राजीव को ऐसा महसूस होने लगा मानो अभी उसके सिर पर मकान ही टूट पड़ेगा। जब उसने देखा कि उसके अन्त:करण के समान बाह्य-प्रकृति में भी एक प्रकार की प्रलय-सी उठ खड़ी हुई है, तब उसे कुछ-कुछ शांति-सी मिली। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो स्वयं प्रकृति ही आकाश-पाताल एक करके, उससे कहीं अधिक शक्ति का प्रयोग करके उसका काम पूरा कर रही है।
इसी समय बाहर से किसी ने द्वार पर जोर से धक्का मारा, राजीव ने शीघ्रता के साथ द्वार खोला। घर में भीगे वस्त्र पहने हुए एक स्त्री ने प्रवेश किया। चेहरे पर उसके लम्बा अवगुंठन पड़ा हुआ था। राजीव ने उसी क्षण पहचान लिया, यह तो महामाया है। उसने आवेश-भरे स्वर में पूछा-महामाया! तुम चिता से उठ आई हो?
महामाया ने कहा- हां! मैंने वचन दिया था कि मैं तुम्हारे घर आऊंगी? उसी वचन को पालने के लिए आई हूं; लेकिन राजीव, मैं अब ठीक पहले की तरह नहीं हूं। मेरा सब-कुछ बदल गया है; लेकिन अपने मन में महामाया हूं। अब भी बोलो और यदि तुम वचन दो कि कभी भी तुम मेरा अवगुंठन न हटाओगे, मेरा मुख न निहारोगे तो मैं जीवन-भर तुम्हारे साथ रह सकती हूं।
मृत्यु के चंगुल से वापस मिल जाना ही बहुत है, उस समय और सब बातें तुच्छ मालूम देती हैं। राजीव ने शीघ्रता से कहा-तुम जैसे चाहो, वैसे रहना। मुझे छोड़ जाओगी तो मैं नहीं रह सकता।
महामाया ने कहा- तो अभी चलो। तुम्हारा साहब जहां गया है, वहीं ले चलो मुझे।
घर में जो कुछ था, सब कुछ छोड़-छाड़कर राजीव महामाया को लेकर उसी प्रकृति के प्रकोप में निकल पड़ा। ऐसा बवंडर चल रहा था कि खड़ा होना मुश्किल था, उसके वेग से कंकड़ियां उड़-उड़कर बन्दूक के छर्रों के समान शरीर में चुभने लगीं। दोनों इस भय से कहीं सिर पर वृक्ष न गिर पड़े, सड़क छोड़कर विस्तृत मैदान में होकर रास्ता पार करने लगे? बवंडर का जोर पीछे से धकेलने लगा, मानो यह इन्हें इस दुनिया से छीनकर प्रलय की ओर उड़ाये लिए जा रहा हो।

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